मेरे प्रेम की ना कोई सीमा है
ना कोई बंधन है
ना कोई आशा है
ना कोई अभिलाषा है
ना कोई चाहत है
ना कोई परिभाषा है
बस इतना जानती हूँकि
जब कोई भी ना होगा तुम्हारे पास
फिर भी मेरा प्यार रहेगा
तुम्हारे आस-पास
देव मेरे मन-मंदिर के ...
काश! उत्सव आ जाए ,
दीये ही दीये जल जाएँ ,
फूल ही फूल खिल जाएँ,
जो मैने जाना, मैंने जिया ,
मैंने पहचाना .........
कुछ न मिला...................
काश!
भीतर मेरी आत्मा का स्नान हो जाये ,
भीतर में स्वच्छ हो जाऊं ,
भीतर में आनंदमग्न हो जाऊं........
मेरा घर,
सुबह की धूप में गुनगुनाता,
कड़कती ठण्ड में ठिठुरता मेरा घर,
सायं की लाली में सुर्माता
दोपहर की गर्मी में तपता मेरा घर!
रिमझिम फुहारों में भीगता
चाँद की चांदनी में चमचमाता मेरा घर,
ओस की बूंदों में नहाता,
इन्द्रधनुषी रंगों में रंगता मेरा घर!
सावन की बौछारों में मचलता
शीतल बयार में इतराता मेरा घर!
क्या जानू मैं स्वर्ग क्या है,
इन्द्र लोक का वैभव क्या है,
समस्त लोक का नैसर्गिक सुख,
देता लुटाता मेरा घर
.......................सदैव
सुबह की धूप में गुनगुनाता,
कड़कती ठण्ड में ठिठुरता मेरा घर,
सायं की लाली में सुर्माता
दोपहर की गर्मी में तपता मेरा घर!
रिमझिम फुहारों में भीगता
चाँद की चांदनी में चमचमाता मेरा घर,
ओस की बूंदों में नहाता,
इन्द्रधनुषी रंगों में रंगता मेरा घर!
सावन की बौछारों में मचलता
शीतल बयार में इतराता मेरा घर!
क्या जानू मैं स्वर्ग क्या है,
इन्द्र लोक का वैभव क्या है,
समस्त लोक का नैसर्गिक सुख,
देता लुटाता मेरा घर
.......................सदैव
कुछ शब्द मेरे अपने (स्व:)
कुछ शब्द मेरे अपने (स्व:)
कौशार्य की विस्मृत कोमलता लौट आने को है,
बचपन के उमंग , उल्लास ,स्वच्छंदता ,गीत-नाद ,
उत्सव------ सब कुछ लुप्त हुए थे कभी ,
प़र साजन के प्रेम में भीगी ,
चपल खंजन-सी ,फुदकती,चहकती ,
नवयुवती अलसाने को है!
कौशार्य की विस्मृत कोमलता लौट आने को है,
बचपन के उमंग , उल्लास ,स्वच्छंदता ,गीत-नाद ,
उत्सव------ सब कुछ लुप्त हुए थे कभी ,
प़र साजन के प्रेम में भीगी ,
चपल खंजन-सी ,फुदकती,चहकती ,
नवयुवती अलसाने को है!
दुःख तो साथी है मेरा , लम्बी पहचान है,
उसे मानने का मन है , वो है तो मैं हूँ,
यही तो है मेरा यथार्थ , यही तो है अपना सा,
हर-पल मेरा साया, कभी छोड़ता ना पीछा ,
दुःख कहती हूँ , तो आँखों में एक रस होता है,
निर्झर बहते अश्रु, कहते हैं कि मैं हूँ !
घावों को कुरेदती हूँ , तन में पीड़ा होती है,
कराहते बदन , कहते है कि मैं हूँ !
पीड़ा होती है , तो अस्तित्व का भान होता है ,
एकाकी , मायूस मन, कहते है कि मैं हूँ !
इस दुःख के बिना , मैं हो ही नहीं सकती,
बिना मांगे , बिन बुलाये भागा चला आता है,
मेरे सबसे पास , सबसे करीब ,
अब तो दुःख में ही , रस आता है,
मेरे होने में ही , मेरा दुःख नियोजित है,
क्योंकि मेरा दुःख है , तो में हूँ!
उसे मानने का मन है , वो है तो मैं हूँ,
यही तो है मेरा यथार्थ , यही तो है अपना सा,
हर-पल मेरा साया, कभी छोड़ता ना पीछा ,
दुःख कहती हूँ , तो आँखों में एक रस होता है,
निर्झर बहते अश्रु, कहते हैं कि मैं हूँ !
घावों को कुरेदती हूँ , तन में पीड़ा होती है,
कराहते बदन , कहते है कि मैं हूँ !
पीड़ा होती है , तो अस्तित्व का भान होता है ,
एकाकी , मायूस मन, कहते है कि मैं हूँ !
इस दुःख के बिना , मैं हो ही नहीं सकती,
बिना मांगे , बिन बुलाये भागा चला आता है,
मेरे सबसे पास , सबसे करीब ,
अब तो दुःख में ही , रस आता है,
मेरे होने में ही , मेरा दुःख नियोजित है,
क्योंकि मेरा दुःख है , तो में हूँ!
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