"कुछ शब्द मेरे अपने" ……… मन में उमड़ते -घुमड़ते भावों के अतिरेक ही सृजन की प्रेरणा है
"कुछ शब्द मेरे अपने" ……… मन में उमड़ते -घुमड़ते भावों के अतिरेक ही सृजन की प्रेरणा है
क्या मेरे शब्द खो गएँ हैं कहीं ? क्या मैं शब्द विहीन हो गयी हूँ ? कहाँ गए मेरे शब्द ? बौरा सी गयीं हूँ एक निरुद्देश्य सा पंथ ,गंतव्य से अनजान दिशा जिस पर अंतहीन को लुभाने वाली ठंडी-ठंडी बयारों में रिमझिम -रिमझिम बारिशों में जो मेरा फेवरेट मौसम है आह ! बारिश और माँ के हाथ के गरम-गरम जलेबी और पकोड़े हरी चटनी के साथ और फिर बाद में अदरक वाली चाय किसी भी ५ स्टार और सेवन स्टार के मास्टर शेफ की रेसिपी के आगे फ़ेल। खुले आसमान के नीचे जाती थी तो प्रतीत होता था कि सारे वातावरण में मानो शब्द ही शब्द बिखरे पड़े हैं दौड़ -दौड़ कर मुट्ठी में भर लूँ और समेट लूँ अपने रेशमी अंचल में सारे शब्दों को वो शब्द मानों एक अबोध शिशु हैं और फिर उसे पोषित -पल्ल्वित करुँगी उन्हें एक जननी की भांति अपने हिसाब से। माँ हूँ न ! गढूंगी उस स्वप्न-सलोने को अपनी इच्छा से ,दुनिया का सर्वश्रेष्ठ "अंश " . ……… जब सारी दुनिया सोती है थक कर गहरी नींद में , मैं दीवानी सी घर की छत पर भाग जाती हूँ अपने स्वप्नों के शीश महलों को बनाने के लिए काली गहरी अँधेरी रातों में न जाने कितने स्वप्न बुनती रहती हूँ जागती अँखियों से और उन सपनों को गढ़ती रहती हूँ शब्दों के ताने-बानों से , ऊपर आकाश में चाँद मेरा नायक जो मेरे हर मनोभाव का साक्षी भी है और मेरी सपनीली दुनिया का हीरो भी ,एक बाँका सजीला मन का मीत ,जिसने मेरी खिलखिलाहटों को देख न जाने कितनी मासूम पंक्तियाँ लिख डाली हैं मेरे लिए न जाने कितने खूबसूरत गीतों की रचना कर डाली हैं इन मदभरे नयनों की ख्वाहिश में … व्योम में टंके चमकीले सितारे कितना आकर्षित करते हैं मुझे। उन्हें रोज ही तो तोड़ -तोड़ कर टाँकती रहती हूँ अपनी पोशाक में। . छमछम करते पांवों को और भी मदमाती चाल से चलते हुए इतराती रहती हूँ यहाँ से वहां से शब्दों को बीन-बीन कर भर्ती रहती हूँ भावों की गगरिया और जब ये गगरी छलकती है तो उस जल के सिंचन से होता है एक अभूतपूर्व सृजन। . एक रचना का जन्म। मेरे अपने सर के ऊपर जो एक छोटा सा मेरे आकाश का टुकड़ा है न ! और जो मेरे पैरों के नीचे की ज़मीन का वो नन्हा सा टुकड़ा ! बस यही तो है मेरी दुनिया ,और उसी में अठखेलिया करते हैं मेरे स्वप्न ,मेरे भाव-विभाव -संचारी भाव .... .......... पर अब एक शून्य सा पसरा है मन में ,एक ठहराव सा , क्या में संवेदन शून्य हो गयी हूँ ,भावहीन ? न -न । संवेदनहीनता तो एक नकारात्मक भाव है यानि कि आप कठोर व् निर्दयी हो गए हो। फिरर ? अश्रु व् अट्ठास से विलग तो नहीं हूँ मैं। । मैं तो आनंद सागर में गोते लगाने वाली उस नन्ही मछली सी हूँ जो बड़ी -बड़ी विशाल मछलियों को देख या तो डर कर किसी शैवाल -जाल में छिप जाती है या फिर उन विशालकाय जलचरों की प्रभुसत्ता के समक्ष स्वम् को तुच्छ समझ कर दूर से ही प्रणाम कर देती है और फिर अपनी ही दुनिया में मस्त हो अपनी छोटी-छोटी खुशियों के लिए ढेर सारे बड़े-बड़े संघर्ष करती रहती है। जब मैं भावशून्य भी नहीं ,संवेदन शून्य भी नहीं तो फिर मेरे अंदर का वो शिशु -रचनाकार कहाँ लुप्त हो गया क्या पढ़ने-पढ़ाने की पोषक खुराक के आभाव में कुपोषण का शिकार हो गया है ? मन में उमड़ते -घुमड़ते भावों के अतिरेक ही सृजन की प्रेरणा है। .... अधिकता चाहे उन्माद की हो ,आनंद की , दुःख की या शोक की। . सृजन को उकसाती है फिर चाहे वो लेखन के रूप में पन्नों में कैद हो जाये चाहे शिल्प के रूप में किसी मास्टर पीस कलाकृति में जीवंत हो उठे , नृत्य दवारा सृष्टि की ताल से ताल मिला ले या फिर गीतों की सुमधुर लहरियों के साथ तन मन को झूमा प्रकृति को सुर प्रदान कर दे। मन का सागर भावों के ज्वरभाटाओं से अभी थम सा लगता है तभी न तो लहरें हिलोरें ले रहीं हैं किसी कोमल -अनुरागी मन को लुभाने के लिए किसी काव्य-सृजन की ,न ही कोई सूनामी आई है जज्बातों की इसीलिए शब्द बेपरवाह हो उछाल-उछाल कर सागर से बाहर नहीं आ रहे तहस -नहस करने ,वज़ूद हिलाने किसी पाषाण हृदय का विचारों की आंधी लेकर ।
थका और ऊबा देने वाला सफर। पहले ऐसा कभी लगता था कि मेरे इस अतिरंगीन जहाँ में मेरे मूड के हिसाब से शब्द बिखरे पड़े हैं यहाँ वहां घर ,बगीचे ,बाजार ,समाज ,रिश्ते,प्रकृति की अनुपम छटाओं में ,मौसमों के बिगड़े मिज़ाज़ों में तो कहीं जी1530418_783558695004443_1648176912_n.jpg
तो फिर ठीक है जब तक भावातिरेक घनघोर घटायें मन को भिगा नहीं देतीं ,जब तक आनंदम ढोल -नगाड़े मन को हर्षा कर झूम-झूम कर नृत्य करने पर मजबूर नहीं कर देते तब तक मैं भी शांत व् स्थिर मन व् दृष्टि से दुनिया की हर आवा -जाही को निहारती रहूंगी एक अपरिचित राहगीर की तरह से
डॉ स्वीट एन्जिल