विवाह की २ ३ वीं वर्षगांठ पर…। टप -टप आँखों के मोतियों को गिरने से पहले कभी अपनी हथेलियों में समेटा होता .. बरसती-भीगती रातों में छत पर भीगते हुए अपनी छतरी में मुझे खींचकर बुलाया होता ठण्ड से ठिठुरती रातों में कंप-कपाते मेरे अस्तित्व को प्रेम की रजाई से ढांपा होता ज्वर की तपन में कराहती हुई मैं कभी बेबस सी करवट बदलती आकर मेरा हाल तो पुछा होता परेशान मुश्किल घड़ियों में कभी भावात्मक सहारा दिया होता बड़ी-बड़ी विषम परिस्थितियों में कभी मेरा हमसाया बना होता झूठ-मूठ का दोषारोपण करते रहे कभी नफरत का कारण बताया होता अपनी इस गृह -लक्ष्मी को कभी अपने मन-मंदिर में बिठाया होता तिरस्कार भरी दृष्टि से देखते रहे कभी अपनत्व से सहलाया होता तेजी से आगे भीड़ में गुमने से पहले थोडा पीछे आकार अपना साथ दिया होता चाव से भोजन करते रहे कभी प्रंशसा से मेरा हौसला बढाया होता घर की हर वस्तु को ध्यान से देखने वाले कभी इस चलती-फिरती काया पर भी ध्यान दिया होता ..................... निरन्तर………………
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