कुछ चीजें कभी नहीं बदलती
कुछ बातें सदा हैं चलती
केवल कुछ वचनों के बदले
सम्पूर्ण जीवन बिता देते हैं
केवल कुछ भांवरों के बदले
तन-मन लुटा देते हैं
क्यों अपना क्यों छोड़ दिया ?
हवन-कुंद की वेदी पर
अर्धांगिनी मान कर भी न माना
पण्डितों के श्लोकों की गुंजन में
मेरे कोरे पवित्र मन को
सिदूर की लाली से रंगने वाले
छूकर भी मुझको कभी न छुआ
मैं हतप्रभ,
आश्चर्य से भरी हुई
ये क्या हुआ?
ये क्यों हुआ ?
हाथ देकर भी कभी हाथ न थामा
साथी होकर भी कभी साथ न पाया
जो मेरा होकर भी मेरा कभी न हुआ
न चूड़ियों की खनक रोक पाई उन्हें
न पायल की रुन -झुन खिंच पाई उन्हें
न जिस्म की महक पास लायी उन्हें
न सांसों की गर्माहट पिघला पाई उन्हें
आँखें दूर तलक पीछा करती रहीं उनका
मौन -मन साथ पाने को तरसता रहा
अपना सर्वस्व न्योछावर करके भी
किंचित!
अपना न बना पाई उन्हें
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