अनेकों बार
मन को समझातीं हूँ ,
किंचित! अब प्रभात है,
मेरे जीवन का ,
कितने मन-मयूर ,कोकिला
मेरे अंगना
नाचने को आशान्वित हैं!
रचूँगी दिवास्वप्न ,
गढ़ूंगी आकृतियाँ
बावरा मन नित
नए स्वप्न बुनता है
मेरे मीत
निहारते मेरा रूप,
चंदा-चांदनी का खेल
हौले से मूंदें नेत्र
आराध्य मेरे खोये रहें ,
प्रिय वक्ष प़र धर शीश ;
स्वप्न मेरे
मिलन अधरों का,
लहर उठे तन-मन में ,
मेरे सुर-सगीत निछावर
प्रिय के अनुराग में,
प्राण मन के मीत मेरे
स्वप्न के आधार.....
कंहा हो???????
ढूढंती हर क्षण प्रिय ......
डॉ। शालिनीअगम
३१/०७/89
8 comments:
रचना मन को लुभा गई
SHALINIJI YOU ARE AWESOME
I LIKE YOUR CREATIONS .
HEY BEAUTIFUL
WHAT A WRITING
प्रिय शालिनी
आप मुझे भा गयीं हैं.
आपका लेखन प्रभावशाली है
डॉ.झा
BOTH OF YOU ARE VERY BEAUTIFUL................YOU & POEM
sundar rachna
iisanuii.blogspot.com
shalini......tumhara blog aur tumhari rachnaaye overall acchhi lagi mujhe...keep it up.....!!
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