Thursday, November 20, 2014

Dr.Shalini Agam . being human

Namaste Indiaaaaa .... Once again i am highly obliged to"Siddaqi sir " ..... Who published my article in the very renowned newspaper...... JanTa KI KhOJ... वृद्धावस्था में क्यों पड़ जातें हैं घर के वृद्ध अलग -थलग ?
सम्भ्रांत शब्द सुनते ही मन में एक छवि उभरती है जीवन की सांध्य से गुजरता
व्यक्तित्व
सुबह व् दोपहर के बाद शाम में विचरता एक शख्स . .........जीवन की संध्या या
सम्भ्रांत शब्द जीवन की विश्रांति बेला जो सुन्दर भी है और सुनहरी है जहाँ
अनुभव की धूप की तपिश का तेज है चेहरे पर और बीते जीवन की कर्तव्यों को
निभाने के पश्चात दिखाई देती हुई सफेद चांदनी है सिर पर
पर क्यों ? किसी किसी वृद्ध के चेहरे की तपिश तेज न बन जल कर उदासी व्
अकेलेपन की कालिमा ओढ़ लेती है और बालों की सफेदी चांदनी न होकर मायूसी का
समंदर बन जाती है ? क्यों वो सम्भ्रांत वृद्ध उम्र को जीता नहीं ढोता है
हर दिन सुबह की शुरुआत होती है तो निराशा से ,हताशा से , या तो कुछ भी करने की
ख्वाहिश ख़त्म हो गयी है … या बच्चे हर बार या तो ये कह कर रोक देते हैं की
बजट नहीं खर्चे बहुत हैं अपने बच्चे पालें या आपके नखरे उठायें या फिर चुपचाप
भजन पूजा में मन लगाओ अब आपकी उम्र नहीं ये सब करने की
उम्र ?? अनेको सवाल सैंकड़ों प्रश्न कौंध जाते हैं एक ही पल में उस थके हुए
बूढ़े मन में
हाँ उम्र तो सारी बीत गयी तुम्हे बड़ा करने में और तुम्हारा करियर बनाने ,शादी
ब्याह ,ज़मीन जायदाद देने में । अपने बुढ़ापे के लिए कुछ बचाया होता तो आज ये
दिन न देखना पड़ता
हम भी तुम्हारी तरह स्वार्थी हो गए होते तो तुम लोग आज इस लायक न होते
....... जो आज अपने ही माँ-बाप को चार बातें सुना रहे हो
"बुढ़ापा " ,बुड्ढा खूँसट ,सठिया गया … जिससे बेचरापन ,बेबसी ,नि :सहाय ,
लाचार जैसी स्तिथि का ही आभास क्यों होता है … क्या वास्तव में स्तिथि ऐसी ही
है जैसी दिखाई देती है । साठ के ऊपर की शख्सियत ,भरेपूरे घर का मालिक सब कुछ
अपने हाथ से पैदा किया और आज असहाय
घर के एक बाहर वाले कमरे में अलग- थलग से पड़े रहना ही अब उसकी किस्मत है जैसे ,
रिटायर जो हो चुके हैं …………………
न कोई काम न कोई हस्तक्षेप घर में
एक पुराने फर्नीचर की तरह पड़े रहो बस
क्यों ?
ऐसा क्यों?
अभी हाथ -पैर पूरी तरह सही सलामत हैं । घंटों दोस्तों से बतिया सकते हैं
बागवानी कर सकते हैं
पूरी किताब एक रात में ख़त्म करने की एनर्जी है
घंटों टी वी देख सकते हो
ताश खेल सकते हो
मंदिर -मस्जिद पर घंटों घूम सकते हो
तो बताइये भला ……… बुड्ढे कहाँ से मान लिया अपने आप को आपने
क्यों न साबित कर दें अपने बच्चों को की आज भी तुमसे ज्यादा दम है इन बूढी
हड्डियों में ....
पोता बिगड़ रहा है या पोती बहुत खर्च करती है कपडे या मेक-उप में
बहु की सहेलिया बहुत आती हैं घर में
बेटे का हाथ बहुत खुला है … अरे तो उससे आपको क्या मतलब है ?
क्यों बोलते हो सारा दिन जो बच्चों को पसंद नहीं । क्यों वही लाइफ स्टाइल
देना चाहते हो जो आपने खुद जिया है
अगर आप सुबह ५-६ बजे सोकर उठे हो सदा और बच्चे ८ बजे से पहले बिस्तर नहीं
छोड़ते तो ………… बुजुर्ग महाशय ये भी तो गौर फरमाइए न कि आप सो भी तो जाते
थे ९ बजे से ही और आज की जेनेरेशन १२ बजे से पहले बिस्तर नहीं पकड़ती कारन
चाहे देर रात की पार्टीस हों या बेटे का घर देर से आना या उसके प्रोफेशन की
डिमांड या बहु के टी वी सीरियल और पिक्चरें
तो आप को क्या परेशानी हैं जब मर्ज़ी उठेंगे जब मर्ज़ी सोयेंगे आप ही रोज बोल
बोल कर बुराइयां मोल लेते हो
बहु थाली में चार चीजें नहीं परोसती तो भूल जाओ न
इतनी महंगाई ऊपर से काम न करने की आदत संभव हो तो आप ही कुछ बना लो न किचन
में जाकर .......... खुद भी खाओ और बच्चों को भी खिलाओ देखो कितना सुख
मिलेगा …
अब आप यही बोलोगी कि " वाह्ह सारी ज़िन्दगी यही किया है । फिर इस उम्र में भी
चूल्हा चौका करवा लो हमसे। . नहीं आंटी जी आप मुझे गलत न समझे मेरा कहने
का मतलब है कि आप अभी कुकिंग कर सकती हैं और माशाल्लाह आपका बनाया खाना बहुत
स्वादिष्ट भी होता है वो भी कितने काम बजट में .... जी चाहता है आपके हाथ
चूम लें .... आपका बेटा कितना खुश होगा आपके हाथ से बना खाना खाकर …
बहु भी दिन भर की थकी हारी आई है … अपनी माँ की याद भी नहीं आएगी अब उसे
और अगर बच्चे पिज़्ज़ा आर्डर कर रहें हैं या चाइनीज तो खाने दो उन्हें ……… आप
भी चख लो थोड़ा सा पर अगर बच्चों को रोकोगे या टोकोगे तो वो सुनने वाले
नहीं और अगर सुन भी लिया तो दोनों का ही मूड ख़राब आपका भी और उनका भी …
यहाँ आपकी सहन शीलता की परीक्षा है ऐसे में कितनी बुद्धिमत्ता से शांति
ला सकतें हैं मन में ये मुश्किल तो होगा पर नामुमकिन नहीं
फिर क्यों अलग थलग होकर बैठ जाती हो सारे घर से ………………… कितना अच्छा हो
कि आप पोते-पोती की दादी नहीं सहेली ही बन जाओ उन्हें लेक्चर देने बजाय
उन्हें समझो और उनका सुख-दुःख ऐसे बांटों … जैसे आप उन्ही की उम्र से गुजर
रही हों याद करो अपने लडक-पन के दिन … क्या आपकी पोती बिलकुल वैसे ही नहीं
लगती जैसे आप थीं इस उम्र में ,उसकी शरारतें उसका चुलबुलापन आप पर ही तो गया
है न देखो फिर आपकी सोच उससे कितनी मिलेगी फिर वो आपसे दूर नहीं भागेगी वरन
अपना हर सुख-दुःख आपसे शेयर करेगी
आजकल पढाई का प्रेशर भी तो कितना बढ़ गया है बच्चों पर ,फिर भविष्य की चिंता
इस सबसे परेशान हो यदि वो कुछ ऐसा कर भी रहें हैं जो आपको पसंद नहीं तो गुस्सा
न होकर उनके स्थान पर खुद को रख देख लिया जाये तो क्या हर्ज़ है अंकल जी
और अगर आपके हर संभव प्रयास के बाद भी बच्चे चाहते ही नहीं कि आप लोग एक घर
शेयर करें तो ऐसी औलाद का तो फिर भगवान ही मालिक है । सब कुछ बच्चों पर न
लुटाया हो तो उन्हें हर चल-अचल संपत्ति का मालिक कभी न बनायें अपने जीते-जी
एक संस्मरण आपसे साझा करना यहाँ उचित होगा …
एक बार एक वृद्ध सज्जन स्वामी अखंडानंद सरस्वती महाराज के पास आये। वे कुछ
दिन पूर्व किसी सरकारी सेवा से सेवानिवृत्त हुए थे। सालों पुराना रूटीन छूटा
तो उन्हें लगने लगा कि घर पर रहता हूँ रोब -रुआब कुछ कम हो गया है बच्चे
पहले जैसा धयान नहीं रखते हैं न ही डरते हैं उनसे। ....... वो स्वम् को
उपेक्षित महसूस करने लगे । उन्हें लगता कि जैसे उनकी महत्ता ख़त्म हो गयी ,कोई
उनको पूछता नहीं है उन्होंने स्वामी को जाकर अपनी परेशानी बताते हुए कहा कि
'स्वामी जी मुझे कोई ऐसा उपाय बताइये कि में अपने परिवार में ही बच्चों के बीच
रहते हुए ,प्रभु -भक्ति में लगा हुआ सम्मानपूर्वक जीवन व्यतीत कर सकूँ। उनकी
बात सुनकर स्वामीजी ने उन्हें कुछ बातें अमल करने को कहा पहली बात तो आप या
आप जैसा कोई भी वयो-वृद्ध स्वम् को रिटायर माने ही नहीं , कभी खाली न बैठे ,
अपितु अपनी क्षमता अनुसार कोई भी काम-काज कर व्यस्त रहे (इस सदी के महानायक
श्री अमिताभ बच्चन को ही देखें , आज भी कुछ कर गुजरने की अदम्य शक्ति रखते
हैं )
कोई काम समझ न आये तो क्षमतानुसार समाज-सेवा में सलंग्न हो जाएँ।
सबसे बड़ी भूल होती है जब कोई सीनियर सिटिज़न खुद को नाकारा समझ घर में बैठकर
बच्चों में कमिया निकालते हैं या स्वम् को बेबस मान लेतें हैं
दूसरा उपाय ये है कि इस उम्र में बोलें कम से कम …। और हस्तक्षेप तो बिलकुल
ना करें अपने बच्चों के बीच में ....... कोई भी सलाह तब तक न दें . जब तक
कि चार-बार खुद आकर बच्चे आपसे ना मांगें
अपनी बुद्धि व् शक्ति यूँ क्षीण न करें अपितु जो समय बच्चों को देखने ,रोकने-टोकने में खर्च किया वो अमूल्य समय अपने सेहत बनाने ,समाजोपयोगी कार्य में
और अपनी मित्र-मंडली के साथ सैर करने और हंसने -हँसाने में बिताएं
सर्वाधिक महत्वपूर्ण उपाय सहनशक्ति .......... वृद्ध व्यक्ति को बहुत अधिक
सहन शील होना पड़ता है और उसी में उनकी मानसिक शांति छुपी है
स्वामी जी की ये सभी बातें उन वृद्ध सज्जन ने गांठ बांध लीं और आगे का जीवन
अधिक शांति व् प्रेम से निर्वाह किया
कुछ एक पर्सेंट … बहुत ही पत्थर दिल संतान की अगर बात छोड़ दें तो ऊपर की गयीं
बातों पर अगर हमारे बड़े बस थोड़ा सा ध्यान दें तो क्यों घर में अलग -थलग पड़े
रहेंगे .... हमारे बड़े तो वो घने विशाल बरगद के वृक्ष हैं जिनकी छाँव पूरे
परिवार को मिलती रहनी चाहिए हमारे बड़ों का आशीर्वाद सदा यूँ ही मिलता रहे
इसी साथ …।
डॉ शालिनी अगम
एम ए पी एच डी हिंदी साहित्य

Monday, November 17, 2014

Dr shalini agam

Dr Shalini Agam you are U r the most lovely lady with the most attractive assets as ur physical appearance a man can't resist to see it and an aura of beauty and intelligence is created in ur personalitu soo much sensuous curved u hav with right amount of mass And its always a killer look present in ur personality which includes ur outfits and ur expressions Gracefully sensuous and pretty
.

Friday, November 14, 2014

Dr.Shalini Agam .. short story

"प्राण मेरे "
साँझ का समय था अल्हड ,मदमस्त हवाएँ चारों ओर फ़िज़ा के रंग में घोल  रही थीं। वातावरण में सघन चुप्पी सी थी ,दूर कहीं पानी का झरना  अपनी सुरीली सी तान छेड़ रहा था ,सुरम्य वादी महकते  फूलों से भरी थी ,पास ही झील  में खूबसूरत फूल खिले हुए थे मानों किसी मनमोहिनी के कर-कमलों का स्पर्श पाने को आतुर हों , सरसराती पवन और उसमे लहराते  "कुमार" के बाल। . बार-बार एक लट चन्द्र -कला सी उस रजत-चन्द्र के मुखड़े पर आकर ठहर जाती थी। . गुलाबी कोमल अधरों पे कोई गीत था। जिसे "कुमार" बड़ी तन्मयता से गुनगुना रहे थे। . मोंगरे की भीनी -भीनी महक वातावरण को सुवासित कर रही थी ,अपने ही गीत में गुम  होते -होते "कुमार" अतीत की उस काली अमावस्या में खो गए। . उदासी भरे भाव उनके मुख-मंडल पर अनायास ही गहराने लगे मानो कोई चि"प्रतियोगिता के लिए 'र -परिचित पीड़ा उन्हें किसी भी प्रकार चैन नहीं लेने देती।  ये हर शाम का उपक्रम था जब कुमार दिन  ढले यहाँ  आकर वर्षों पड़ी एक शिला पर बैठ जाया करते थे और इसी प्रकार विरह की तान छेड़ा करते थे ,दृष्टि उनकी सदैव सामने एक खंडहर पर ही रहती जैसी किसी का इंतज़ार है एक मुद्दत से , ....  और यहाँ आकर  जैसे ही वो व्याकुल प्रेमी श्रृंगार गीत का राग छेड़ेगा उसकी नायिका तड़पती हुई बड़ी शिद्दत से लिपट जाएगी कुमार के सीने  से  । ये मात्र कल्पना नहीं ऐसा ही होता था जब भी कुमार यहाँ आकर अपनी सुरीली तान छेड़ते ''नंदिनी  का मन बेकाबू होने लगता सारी  सीमायें तोड़ वो दौड़ती हुई कुमार के चौड़े कन्धों पर  अपना सर टिका देती  ।आह!कितना सुहाना पल होता था वो जब नायक के गीतों पर नायिका के महावर रचे नरम पैर घुँघरू की ध्वनि से गुंजायमान हो थिरकने लगते थे ,नृत्य -मग्न नायिका और गीत गाते  नायक की लय -ताल पर जैसे सारी  प्रकृति  ही आनंदित होकर झूमने लग जाती थी  ,शिव और शक्ति का ऐसा अनुपम मिलन देख देवता भी पुष्प वर्षा करते न थकते थे 
"कैसी हो प्रिये ?' बरसों पहले की घटना कुमार की यादों में तैरने लगी। । 'तुम्हारे बिना कैसी रहूंगी '  , तुम मुझे छोड़कर क्यों चले जाते हो ,न जाया करो कुमार। . 'फिर से आने के लिए ' प्यार से मुस्कुराये कुमार 'जाऊंगा नहीं तो आऊंगा कैसे ' कहते हुए कुमार ने श्वेत -धवल महकते मोंगरे नंदिनी के केशों में सजा दिए ,निन्दिनी का रूप और निखर आया ,कुमार अपलक देखते रह गए ,प्रणय-चिह्न कपोलों पर अंकित करते हुए कहा 'नंदू '… सदा के लिए मेरी बन जाओ ,मैं जल्द ही विवाह का प्रस्ताव लेकर आता हूँ तुम्हरे माता-पिता के पास '
अचानक छिटक गयी वो उस प्रणय-आलिंगन से ,काँप  सी  गयी  वो … कुमार को समझ न आया कि अचानक ये भाव-भंगिमा क्यों बदल गयी नंदिनी की तभी किसी ने पुकारा उस पुरानी हवेली से 'नंदू उउउउ ओ नंदू उउउउउ घबरा कर नंदिनी ने कुमार का हाथ  छोड़ा  और हवेली की ओर भागती चली गयी  … उसके पैरों मैं बंधे घुंघरुओं की खनक देर तक बजती रही ,उसके महावर से सजे पैरों और वो पीली रेशमी साड़ी  …। बस यही आखिरी स्मृति रह गयी सदा के लिए कुमार के मन में। 
तब से लेकर आज तक मानो  एक युग बीत गया ,नंदिनी की वो आखिरी झलक का आखिरी  चरण ,उसे हर पल  याद में तड़पाता है ,स्वप्न में आता है ,उसी दृश्य को ,उसी स्वप्न को साकार करने कुमार यहाँ हर रोज आतें हैं कि फिर से वो गुनगुनाएंगे और नंदू का वही सुन्दर सा सजा हुआ पैर हवेली की चौखट से बाहर आयेगा ,और सदा के लिए अपना लेगा उसे , कहाँ -कहाँ नहीं ढूँढा उस पगले प्रेमी ने अपनी प्रियतमा को।  पर उसे न मिलना था  . न वो मिली ................ 
सालों  बीत गए  इस दौरान कुमार ने एक  तैल -चित्र बनाया था।  इसी छवि का  पीली साड़ी  में लिपटा  ,महावर रचा ,घुँघरू से बंधा एक चरण ,जो चौखट को लांघकर पुरानी हवेली में प्रवेश कर रहा था ' । मौलिक चित्र और उस के पीछे लिखा एक सन्देश 'चली आओ मधुरे ,जीवित तो हूँ पर प्राण नहीं ,तुम जो आ जाओगी पास मेरे ,तो भर जाएगी झोली मेरी भी खुशियों से ' 
वो चित्र जब एक नगर -वधू ने देखा तो अवाक् रह गयी उस चित्र को खरीद समय गवाए बिना जा पहुँची उसी पुरानी ,झरने के पास वाली हवेली में ,सायं-काल को  हमेशा की भांति जब कुमार ने आकर नंदिनी को अपने गीतों में पुकारना शुरू किया तो सामने उन्हें नंदिनी के होने का एहसास हुआ , बेकरारी में करार आ गया  , वो नंदू ही थी।  कुमार की प्रसन्नता का पारावार न रहा ,दो प्रेमियों का मधुर -मिलन ,सारी  सृष्टि भी जैसे झूमना चाहती थी ,'कहाँ चली गयी थी तुम मधुरे !?'अश्रु -पूरित नेत्रों से बोले कुमार  'कुमार ,मेरे स्वामी मैं आपके लायक नहीं ,उस वक़्त मैं डर गयी थी ,कह न सकी ,मैं नगर-वधू हूँ ,किसी की गृह-लक्ष्मी नहीं बन सकती।  
कुमार ने कसकर उसे गले लगा लिया 'पगली क्यों तुमने मेरा जीवन सूना कर दिया ,मुझे कोई आपत्ति नहीं ,तुम जो भी हो ,जैसी भी हो ,मेरी हो प्रिये ! 
और नंदिनी  ………………… 
उसे तो सारा जहाँ मिल गया था।  
डॉ स्वीट एन्जिल